Book Name:Hirs kay Nuqsanaat or Qana_at ki Barkaat
वोह येह नहीं समझता कि बस अब मुझे मालो दौलत की ज़रूरत नहीं क्यूंकि येह चीज़ तो उस मरीज़ुल ह़िर्स (या’नी ह़िर्स के मरीज़) की रग रग में ख़ून की त़रह़ शामिल हो चुकी होती है । लिहाज़ा वक़्त गुज़रने के साथ साथ उस की ह़िर्स में कमी आने के बजाए मज़ीद इज़ाफ़ा हो जाता है, बिल आख़िर वक़्ते अजल (या’नी मौत का वक़्त) आ पहुंचता है, मौत उस की ज़िन्दगी का चराग़ गुल या’नी बुझा देती है और एक ही झटके में उस के ख़्वाबों का मह़ल टुक्ड़े टुक्ड़े हो जाता है । बेशक जिस ख़ुश नसीब के पास क़नाअ़त की दौलत होती है वोह सुकून व इत़मीनान की ज़िन्दगी बसर करता है, इस के बर अ़क्स जिस के दिलो दिमाग़ में ह़िर्स की नुह़ूसत घर कर जाती है उसे बसा अवक़ात जीते जी इस ह़िर्स के अन्जाम का सामना करना पड़ता है ।
صَلُّوْا عَلَی الْحَبِیْب! صَلَّی اللّٰہُ تَعَالٰی عَلٰی مُحَمَّد
मीठे मीठे इस्लामी भाइयो ! याद रखिये ! अल्लाह पाक ने जिस का जितना रिज़्क़ मुक़द्दर फ़रमा दिया है उसे वोह मिल कर रहेगा, लिहाज़ा ज़ियादा की ख़्वाहिश रखना बेकार है । जैसा कि एक देहाती ने अपने भाई को ह़िर्स करने पर मलामत करते हुवे कहा : ऐ मेरे भाई ! एक चीज़ को तुम ढूंड रहे हो और एक चीज़ ख़ुद तुम्हें ढूंड रही है । जो चीज़ तुम्हें ढूंड रही है (या’नी मौत) तुम उस से बच नहीं सकते और जो चीज़ तुम ढूंड रहे हो (या’नी रिज़्क़) वोह तो तुम्हें पहले ही ह़ासिल है । शायद तुम येह समझते हो कि जो (दुन्या का) ह़रीस होता है उसे सब कुछ मिल जाता है और जो (इस से) बे रग़बती इख़्तियार करने वाला होता है वोह मह़रूम रह जाता है (ह़ालांकि येह तुम्हारी बहुत बड़ी ग़लत़ फ़हमी है) । ( اِحیاء العلوم، کتاب ذم البخل...الخ، بیان ذم الحرص...الخ، ۳ / ۲۹۶ ملتقطاً )
मीठे मीठे इस्लामी भाइयो ! वाके़ई़ उस आ’राबी की येह बात ह़क़ीक़त पर मबनी है कि न तो ह़िर्स के सबब बन्दे के रिज़्क़ में इज़ाफ़ा होता है और न ही बे रग़बती की वज्ह से कमी होती है, लिहाज़ा ह़िर्स से बचते हुवे क़नाअ़त इख़्तियार करनी चाहिये क्यूंकि क़नाअ़त इख़्तियार करने में फ़ाइदा ही फ़ाइदा है जब कि ह़िर्स में दुन्या व आख़िरत का ख़सारा ही ख़सारा है । जैसा कि :