Tarbiyat e Aulad

Book Name:Tarbiyat e Aulad

(1) देहाती औ़रत की नसीह़त

          ह़ज़रते इमाम अस्मई़ رَحْمَۃُ اللّٰہ ِ عَلَیْہ फ़रमाते हैं : मैं ने एक देहाती औ़रत को देखा जो अपने बेटे को नसीह़त करते हुवे केह रही थी : बेटा ! अ़मल की तौफ़ीक़ अल्लाह पाक की त़रफ़ से है और मैं तुझे नसीह़त करती हूं : ٭ चुग़ली करने से बचते रेहना क्यूंकि येह दो क़बीलों में दुश्मनी डाल देती है, दोस्तों (Friends) को जुदा कर देती है । ٭ लोगों के ऐ़ब तलाश करने से बचो, कहीं तुम भी ऐ़बदार न हो जाओ । ٭ इ़बादत में दिखावा न करना । ٭ माल ख़र्च करने में कन्जूसी से बचते रेहना । ٭ दूसरों के अन्जाम से सबक़ ह़ासिल करना । ٭ लोगों का जो अ़मल तुम्हें अच्छा लगे, उस पर अ़मल करना और उन में जो काम तुम्हें बुरा लगे, उस से बचते रेहना क्यूंकि आदमी को अपने ऐ़ब (Fault) नज़र नहीं आते । फिर वोह औ़रत ख़ामोश हो गई, तो मैं ने कहा : ऐ देहाती औ़रत ! तुझे अल्लाह पाक की क़सम ! मज़ीद नसीह़त करो । उस ने पूछा : ऐ शहरी ! क्या तुझे एक देहाती की बातें अच्छी लगी हैं ? मैं ने कहा : अल्लाह पाक की क़सम ! अच्छी लगी हैं । वोह बोली : ٭ बेटा ! धोका देने से बचते रेहना क्यूंकि तू लोगों से जो मुआ़मलात करता है, धोका देना उन में सब से बुरा है । ٭ सख़ावत, इ़ल्म, आ़जिज़ी और ह़या को अपना लेना, अब मैं तुझे अल्लाह पाक के ह़वाले करती हूं, तुम पर सलामती हो, अल्लाह पाक तुम पर रह़्म करे । ٭ याद रखो ! ग़ीबत करना ह़ालते इस्लाम में 30 मरतबा बदकारी करने से भी सख़्त गुनाह है । (आंसूओं का दरया, स. 249)

(2) मर्ह़ूम ह़ाजी ज़मज़म अ़त़्त़ारी और तरबियते औलाद

          मुबल्लिग़े दावते इस्लामी व रुक्ने मर्कज़ी मजलिसे शूरा, ह़ाजी अबू जुनैद ज़मज़म रज़ा अ़त़्त़ारी رَحْمَۃُ اللّٰہ ِ عَلَیْہ की ज़ौजए मोह़तरमा का बयान है : मर्ह़ूम अपनी औलाद से बहुत प्यार करते थे, बेटियां घर आतीं, तो मसरूफ़िय्यात के बा वुजूद उन से मिलने घर आते थे, घर में जब किसी की ग़लत़ी की इस्लाह़ करते हुवे लह्जा थोड़ा सख़्त करते, तो साथ में वज़ाह़त भी कर देते कि "मैं आख़िरत में नजात और आप लोगों के फ़ाएदे के लिए समझा रहा हूं ।" खाना खाते वक़्त बच्चों के ज़रीए़ दुआ़एं पढ़वाते और सुन्नत के मुत़ाबिक़ खाना खाया करते, ह़त्तल इमकान बेटों को नमाज़ के लिए साथ ले जाया करते, मदनी क़ाफ़िले में सफ़र के लिए जाते, तो नमाज़ की ताकीद कर के जाते और सफ़र के दौरान भी SMS के ज़रीए़ मालूमात करते कि नमाज़ अदा कर ली है या नहीं ? बीमारी की ह़ालत में भी अपने बड़े शहज़ादे से फ़रमाया : जैसे ही मेरी त़बीअ़त बह़ाल हुई, اِنْ شَآءَ اللّٰہ हम दोनों मदनी क़ाफ़िले में सफ़र करेंगे । शहज़ादे को मोबाइल ले कर देने से मन्अ़ करते हुवे ज़ेह्न बनाया कि चूंकि अमीरे अहले सुन्नत دَامَتْ بَرْکَاتُھُمُ الْعَالِیَہ ने बच्चों को मोबाइल ले कर देने से मन्अ़ फ़रमाया है, इस लिए मैं आप को मोबाइल ले कर नहीं दूंगा । (मह़बूबे अ़त़्त़ार की 122 ह़िकायात, स. 13, मुलख़्ख़सन)

          ऐ आ़शिक़ाने रसूल ! बयान कर्दा ह़िकायात में वालिदैन और औलाद दोनों के लिए नसीह़त है । येह सच है कि अच्छे वालिदैन, औलाद की दीनी तरबियत से कभी ग़ाफ़िल नहीं होते बल्कि उन