Book Name:Tarbiyat e Aulad
सामना होता, तो फ़ौरन नज़रें नीची करते हुवे सर झुका लिया करते, 7 साल के थे कि माहे रमज़ानुल मुबारक के रोज़े रखना शुरूअ़ कर दिए । (तज़किरए इमाम अह़मद रज़ा, स. 3)
صَلُّوْا عَلَی الْحَبِیْب! صَلَّی اللّٰہُ عَلٰی مُحَمَّد
प्यारे प्यारे इस्लामी भाइयो ! रजबुल मुरज्जब की आमद आमद है । आइए ! अमीरे अहले सुन्नत, ह़ज़रते अ़ल्लामा मौलाना मुह़म्मद इल्यास अ़त़्त़ार क़ादिरी دَامَتْ بَرْکَاتُھُمُ الْعَالِیَہ के माहे रजबुल मुरज्जब के ह़वाले से मक्तूब का ख़ुलासा सुनते हैं । चुनान्चे,
आप دَامَتْ بَرْکَاتُھُمُ الْعَالِیَہ फ़रमाते हैं : मेरी जानिब से तमाम इस्लामी भाइयों, इस्लामी बहनों, मदारिसुल मदीना और जामिआ़तुल मदीना के असातिज़ा, त़लबा, मोअ़ल्लिमात और त़ालिबात की ख़िदमात में काबए मुशर्रफ़ा के गिर्द घूमता हुवा, गुम्बदे ख़ज़रा को चूमता हुवा, रजबुल मुरज्जब, शाबानुल मुअ़ज़्ज़म और रमज़ानुल मुबारक के रोज़ादारों की बरकतों से मालामाल झूमता हुवा सलाम :
اَلسَّلَامُ عَلَیْکُمْ وَرَحْمَۃُ اللّٰہِ وَ بَرَکَاتُہٗ اَلْحَمْدُ لِلّٰہِ رَبِّ الْعٰلَمِیْنَ عَلٰی کُلِّ حَال
اَلْحَمْدُ لِلّٰہ एक बार फिर ख़ुशी के दिन आने लगे, माहे रजबुल मुरज्जब की आमद आमद है । इस माहे मुबारक में इ़बादत का बीज बोया जाता, शाबानुल मुअ़ज़्ज़म में नदामत के अश्कों से आबपाशी की जाती और माहे रमज़ानुल मुबारक में रह़मत की फ़सल काटी जाती है ।
रजबुल मुरज्जब के क़द्रदानो ! तालीमो तअ़ल्लुम (यानी सीखने और सिखाने) और कस्बे ह़लाल में रुकावट न हो, मां-बाप भी बे सबब मन्अ़ न करें, किसी की भी ह़क़ तलफ़ी न होती हो, तो जल्दी जल्दी और बहुत जल्दी मुसल्सल तीन माह के या रमज़ानुल मुबारक के मुकम्मल फ़र्ज़ रोज़ों के साथ साथ जिस से जितने बन पड़ें, उतने नफ़्ल रोज़ों के लिए कमर बस्ता हो जाए, सह़री और इफ़्त़ार में कम खा कर पेट का क़ुफ़्ले मदीना भी लगाए । काश ! हर घर में और मेरे जुम्ला मदारिसुल मदीना और तमाम जामिआ़तुल मदीना में रोज़ों के बहारें आ जाएं, बस पेहली रजब शरीफ़ से ही रोज़ों का आग़ाज़ फ़रमा दीजिए ।
रजब के इब्तिदाई तीन रोज़ों की फ़ज़ीलत
रजब शरीफ़ के इब्तिदाई तीन रोज़ों के फ़ज़ाइल की भी क्या बात है ! ह़ज़रते अ़ब्दुल्लाह इब्ने अ़ब्बास رَضِیَ اللّٰہُ عَنْھُمَا से रिवायत है : रसूले करीम صَلَّی اللّٰہُ عَلَیْہِ وَاٰلِہٖ وَسَلَّم का फ़रमाने रह़मत निशान है : रजब के पेहले दिन का रोज़ा तीन साल का कफ़्फ़ारा है और दूसरे दिन का रोज़ा दो साल का और तीसरे दिन का एक साल का कफ़्फ़ारा है फिर हर दिन का रोज़ा एक माह का कफ़्फ़ारा है । (جامع صغیر ،ص۳۱۱ ،حدیث: ۵۰۵۱)
अमीरे अहले सुन्नत دَامَتْ بَرْکَاتُھُمُ الْعَالِیَہ फ़रमाते हैं : अगर मुत़ालआ़ कर लिया हो, तब भी दोनों रिसाले : (1) कफ़न की वापसी मअ़ रजब की बहारें और (2) आक़ा का महीना पढ़ लीजिए । हर साल शाबानुल मुअ़ज़्ज़म में फै़ज़ाने सुन्नत, जिल्द अव्वल का बाब "फै़ज़ाने रमज़ान" भी ज़रूर पढ़