Book Name:Fazilat Ka Maiyar Taqwa
ह़ुज़ूरे पुरनूर صَلَّی اللّٰہُ تَعَالٰی عَلَیْہِ واٰلِہٖ وَسَلَّمَ के दरमियान में सिर्फ़ एक शख़्स रह गया । उन्हों ने उस से भी कहा कि जगह दो । उस ने कहा : तुम्हें जगह मिल गई है, इस लिये बैठ जाओ ! ह़ज़रते साबित رَضِیَ اللّٰہُ تَعَالٰی عَنْہ ग़ुस्से में आ कर उस के पीछे बैठ गए । जब दिन ख़ूब रौशन हुवा, तो ह़ज़रते साबित رَضِیَ اللّٰہُ تَعَالٰی عَنْہ ने उस का जिस्म दबा कर कहा : कौन ? उस ने कहा : मैं फ़ुलां शख़्स हूं । ह़ज़रते साबित رَضِیَ اللّٰہُ تَعَالٰی عَنْہ ने उस की मां का नाम ले कर कहा : फ़ुलांनी का लड़का ! इस पर उस शख़्स ने शर्म से सर झुका लिया क्यूंकि उस ज़माने में ऐसा कलिमा आ़र दिलाने के लिये कहा जाता था, इस पर येह आयत नाज़िल हुई ।
(تفسیرخازن،پ۲۶،الحجرات،تحت الآیۃ:۱۱،۴ / ۱۶۹ملخصاً)
ह़ज़रते सय्यिदुना इमाम अह़मद बिन ह़जर मक्की शाफे़ई़ رَحْمَۃُ اللّٰہ ِتَعَالٰی عَلَیْہ इस आयत के तह़्त फ़रमाते हैं : इस ह़ुक्मे ख़ुदावन्दी का मक़्सद येह है कि किसी को ह़क़ीर न समझो, हो सकता है वोह अल्लाह पाक के नज़दीक तुम से बेहतर, अफ़्ज़ल और ज़ियादा मुक़र्रब हो । (الزواجر،الباب الثانی:فی الکبائر الظاہرۃ ،الکبیرۃ الثامنۃ …الخ، ۲ / ۱۱)
शैख़ुल ह़दीस, ह़ज़रते अ़ल्लामा अ़ब्दुल मुस्त़फ़ा आ'ज़मी رَحْمَۃُ اللّٰہ ِتَعَالٰی عَلَیْہ फ़रमाते हैं : इस ज़माने जो एक फ़ासिक़ाना और सरासर मुजरिमाना रवाज निकल पड़ा है कि "शैख़" और "पठान" वग़ैरा कहलाने वालों का येह दस्तूर बन गया है कि वोह धुन्या (या'नी रूई धुनने वाला), जोलाहा (या'नी कपड़ा बुनने वाला), क़साई, नाई कह कर मुख़्लिस व मुत्तक़ी मुसलमानों का मज़ाक़ बनाया करते हैं बल्कि इन क़ौमों के आ़लिमों को मह़्ज़ उन की क़ौमिय्यत की बिना पर ज़लील व ह़क़ीर समझते हैं बल्कि अपनी मजलिसों में उन का मज़ाक़ बना कर हंसते हंसाते हैं । ह़द हो गई कि जो लोग बरसों इन क़ौमों के आ़लिमों के सामने ज़ानूए तलम्मुज़ त़ै कर के (या'नी इन की शागिर्दगी इख़्तियार कर के) ख़ुद को आ़लिम और शैख़े त़रीक़त बने हैं मगर फिर भी मह़्ज़ क़ौमिय्यत की बिना पर अपने उस्तादों को ह़क़ीर व ज़लील समझ कर इन का तमस्ख़ुर करते (या'नी मज़ाक़ उड़ाते) रहते हैं और अपने नसब व ज़ात पर फ़ख़्र कर के दूसरों की ज़िल्लत व ह़क़ारत का चर्चा करते रहते हैं । लिल्लाह ! बताइये कि क़ुरआने