Mout Ki Yad Kay Fazail Shab e Qadr 1442

Book Name:Mout Ki Yad Kay Fazail Shab e Qadr 1442

बिला उ़ज़्रे शरई़ न रखे, फ़र्ज़ होते हुवे भी ज़कात न दी,      ह़ज़ फ़र्ज़ था मगर अदा न किया, बा वुजूदे क़ुदरत शरई़ पर्दा नाफ़िज़ न किया, मां-बाप की ना फ़रमानी की, झूट, ग़ीबत, चुग़ली की आ़दत रही, फ़िल्में, ड्रामे देखते रहे, गाने, बाजे सुनते रहे, दाढ़ी मुन्डवाते या एक मुठ्ठी से घटाते रहे, अल ग़रज़ ! ख़ूब गुनाहों का बाज़ार गर्म रखा, तो अल्लाह पाक और उस के रसूल صَلَّی اللّٰہُ عَلَیْہِ وَاٰلِہٖ وَسَلَّم की नाराज़ी की सूरत में सिवाए ह़सरत व शर्मिन्दगी के कुछ हाथ न आएगा लेकिन इस के बर अ़क्स अगर अल्लाह पाक की रिज़ा वाले कामों में मश्ग़ूल रहे, फ़राइज़ के साथ साथ नवाफ़िल की भी पाबन्दी की, रमज़ानुल मुबारक के इ़लावा नफ़्ल रोज़े भी रखे, ज़कात फ़र्ज़ होने पर पाबन्दी के साथ बर वक़्त अदा की, फ़र्ज़ होने पर ह़ज भी अदा किया, सूरत के साथ साथ सीरत को भी आक़ा करीम صَلَّی اللّٰہُ عَلَیْہِ وَاٰلِہٖ وَسَلَّم की सुन्नतों का आईनादार बना लिया, कूचा कूचा, गली गली नेकी की दावत की धूमें मचाईं, क़ुरआने करीम की तालीम न सिर्फ़ ख़ुद ह़ासिल की बल्कि दूसरों को भी दी, चौक दर्स देने में हिचकिचाहट मह़सूस न की, घर दर्स जारी किया, सुन्नतों की तरबियत के मदनी क़ाफ़िलों में बा क़ाइ़दगी से सफ़र करने के साथ साथ दीगर मुसलमानों को भी इस की तरग़ीब दी, रोज़ाना नेक आमाल का रिसाला पुर कर के हर अंग्रेज़ी माह की पेहली तारीख़ को अपने ज़िम्मेदार को जम्अ़ करवाया, अल्लाह पाक और उस के प्यारे ह़बीब صَلَّی اللّٰہُ عَلَیْہِ وَاٰلِہٖ وَسَلَّم के फ़ज़्लो करम से ईमान सलामत ले कर दुन्या से रुख़्सत हुवे, तो اِنْ شَآءَ اللّٰہ क़ब्र में ह़श्र तक रह़मतों का दरया मौजें मारता रहेगा और नूरे मुस्त़फ़ा के चश्मे लेहराते रहेंगे ।

मौत की याद भूलने की बड़ी वज्ह

          प्यारे प्यारे इस्लामी भाइयो ! मौत की याद में रुकावट की सब से बड़ी वज्ह "लम्बी उम्मीदें" हैं, जिन में शैत़ान ने हमें बांधा हुवा है । हम नित नए मन्सूबे तो तय्यार करते जाते हैं मगर मौत की तय्यारी से ग़ाफ़िल हैं, फ़ना होने वाली दुन्या में घर की ख़ूबसूरती हमारी पेहली तरजीह़ तो है मगर हमेशा की रेहने वाली ज़िन्दगी हमारे ज़ेह्न के किसी कोने में नहीं ।

मौत को याद न करने के नुक़्सानात

          मौत की याद से ग़फ़्लत इन्सान को बहुत से नुक़्सानात से दोचार कर देती है : ٭ मौत से बे परवा कर के क़ब्रो आख़िरत की याद भुला देती है । ٭ मौत की याद से ग़फ़्लत इन्सान को आख़िरत में अपने आमाल के ह़िसाब और मैदाने मह़शर की सख़्तियों को भुला देती है । ٭ दीन पर अ़मल से दूर करती और शरीअ़त की पैरवी से मह़रूम कर देती है । ٭ अच्छे बुरे की तमीज़ से बे नियाज़ करती और इन्सान की नज़रों में ग़लत़ और सह़ीह़ का फ़र्क़ मिटा देती है । ٭ फ़र्ज़ नमाज़ की अदाएगी से मह़रूम करती और वाजिबात को अदा करने से रोक देती है । ٭ सुन्नतों पर अ़मल में रुकावट बनती और इन्सान को उस के मक़्सदे ह़क़ीक़ी से हटा कर फ़ुज़ूल कामों में मुब्तला कर देती है । लिहाज़ा हर वक़्त अपनी मौत को याद रखें और इस की  तय्यारी के लिए कोशिश करते रहें,