Book Name:Mout Ki Yad Kay Fazail Shab e Qadr 1442
मिटाती और दुन्या से बे रग़बत करती है । (3) मौत को ज़ियादा याद करने और इस की ज़ियादा तय्यारी करने वाले लोग अ़क़्लमन्द हैं । (इह़याउल उ़लूम, 5 / 477 ता 478) (4) जिसे मौत की याद ख़ौफ़ज़दा करती है, क़ब्र उस के लिए जन्नत का बाग़ बन जाएगी । (جمع الجوامع، ۲/۱۴،حدیث:۳۵۱۶) (5) मौत की याद, मौत आने से पेहले इस की तय्यारी करने पर उभारती है । (6) उम्मीदों को कम करती है । (7) थोड़ी रोज़ी पर मुत़्मइन करती है । (8) दुन्या से बे रग़बत और आख़िरत की त़रफ़ माइल करती है । (9) मौत की याद दुन्यावी मुसीबतों को हल्का व आसान करती और ना शुक्री, तकब्बुर और लज़्ज़ाते दुन्या को कसरत से रोकती है ।
صَلُّوْا عَلَی الْحَبِیْب! صَلَّی اللّٰہُ عَلٰی مُحَمَّد
अमीरुल मोमिनीन, ह़ज़रते उ़मर बिन अ़ब्दुल अ़ज़ीज़ رَحْمَۃُ اللّٰہ ِ عَلَیْہ ने एक बार अपने किसी रफ़ीक़ से फ़रमाया : भाई ! मौत की याद ने मेरी नींद उड़ा दी, मैं रात भर जागता रहा और क़ब्र वाले के बारे में सोचता रहा । ऐ भाई ! अगर तुम तीन दिन बाद मुर्दे को उस की क़ब्र में देखो, तो एक लम्बे अ़र्से तक ज़िन्दगी में उस के साथ रेहने के बा वुजूद तुम्हें उस से घबराहट होने लगे, उस के घर यानी उस की क़ब्र के अन्दरूनी ह़िस्से में कीड़े रेंग रहे और बदन को खा रहे हैं, पीप जारी है, सख़्त बदबू आ रही है और कफ़न भी बोसीदा हो चुका है । हाए ! हाए ! ग़ौर तो करो ! येही मुर्दा जिस वक़्त ज़िन्दा था, तो ख़ूबसूरत था, ख़ुश्बू भी अच्छी इस्तिमाल किया करता था, लिबास भी उ़म्दा पेहना करता था । रावी केहते हैं : इतना केहने के बाद आप पर रिक़्क़त त़ारी हो गई, एक चीख़ मारी और बेहोश हो गए । (احیاء العلوم، کتاب ذکر الموت وما بعدہ، الباب الاول فی ذکر الموت...الخ،۴/ ۵۴۴)
ऐ आ़शिक़ाने रसूल ! ग़ौर कीजिए ! हमारे बुज़ुर्गाने दीन मौत को किस क़दर कसरत से याद किया करते थे और मौत के ख़ौफ़ से लरज़ते थे मगर हमारी ह़ालत येह है कि हम मौत को भूले बैठे हैं, रोज़ रोज़ के उठते जनाज़े भी हमें ख़्वाबे ग़फ़्लत से बेदार नहीं करते । अफ़्सोस ! सद करोड़ अफ़्सोस ! हम दूसरों को क़ब्र में उतरता हुवा देखते हैं मगर येह भूल जाते हैं कि एक दिन हमें भी क़ब्र में उतारा जाएगा । आह ! हमारी ह़ालत येह है कि रात बिजली फे़ल हो जाए, तो दिल घबराता, ख़ुसूसन अकेले हों, तो बहुत ख़ौफ़ आता और अन्धेरा काट खाता है लेकिन इस के बा वुजूद क़ब्र के हौलनाक घुप अन्धेरे का कोई एह़सास नहीं होता । मसलन नमाज़ें नहीं पढ़ी जातीं, रमज़ानुल मुबारक के रोज़े नहीं रखे जाते, फ़र्ज़ होने के बा वुजूद ज़कात पूरी नहीं दी जाती, मां-बाप के ह़ुक़ूक़ अदा नहीं किए जाते, अल ग़रज़ ! रात दिन गुनाहों में गुज़र रहे हैं । यक़ीनन मौत का एक वक़्त मुकर्रर है, इसे टालना मुमकिन नहीं, अगर इसी त़रह़ गुनाह करते करते अचानक मौत का पैग़ाम आ पहुंचा और हमें क़ब्र के गढ़े में डाल दिया गया, तो न जाने हमारी क़ब्र की पेहली रात कैसी गुज़रेगी !
صَلُّوْا عَلَی الْحَبِیْب! صَلَّی اللّٰہُ عَلٰی مُحَمَّد