Mout Ki Yad Kay Fazail Shab e Qadr 1442

Book Name:Mout Ki Yad Kay Fazail Shab e Qadr 1442

2.   जिस के पास साढ़े सात तोले सोना या साढ़े बावन तोला चांदी या साढ़े बावन तोला चांदी की रक़म या इतनी मालियत का माले तिजारत हो (और येह सब ह़ाजाते अस्लिय्या से फ़ारिग़ हों), उस को "साह़िबे निसाब" कहा जाता है ।

3.  सदक़ए फ़ित़्र वाजिब होने के लिए आ़क़िल व बालिग़ होना शर्त़ नहीं बल्कि बच्चा या मजनून (यानी पागल) भी अगर साह़िबे निसाब हो, तो उस के माल में से उन का वली (यानी सरपरस्त) अदा करे । (ردّالْمُحتار ج۳ص۳۱۲)

4.   सदक़ए फ़ित़्र के लिए मिक़्दारे निसाब तो वोही है जो ज़कात का है, जैसा कि मज़कूर हुवा लेकिन फ़र्क़ येह है कि सदक़ए फ़ित़्र के लिए माल के नामी (यानी उस में बढ़ने की सलाह़िय्यत) होने और साल गुज़रने की शर्त़ नहीं ।

5.   मर्द साह़िबे निसाब पर अपनी बीवी या मां-बाप या छोटे भाई, बहन और दीगर रिश्तेदारों का फ़ित़्रा वाजिब नहीं । (आ़लमगीरी, जि. 1, स. 193)

6.   वालिद न हो, तो दादाजान वालिद साह़िब की जगह हैं, यानी अपने फ़क़ीर व यतीम पोते, पोतियों की त़रफ़ से उन पर सदक़ए फ़ित़्र देना वाजिब है । (دُرَّمُختار، ردُّالْمُحتار ج۲ص۳۱۵)

7.   मां पर अपने छोटे बच्चों की त़रफ़ से सदक़ए फ़ित़्र देना वाजिब नहीं । (َدُّ الْمُحتار ج۳ص۳۱۵)

8.   बाप पर अपनी आ़क़िल, बालिग़ औलाद का फ़ित़्रा वाजिब नहीं । (رِّمُختار مع رَدِّالْمُحتار ج۳ص۳۱۷)

9.   ई़दुल फ़ित़्र की सुब्ह़े सादिक़ त़ुलूअ़ होते वक़्त जो साह़िबे निसाब था, उसी पर सदक़ए फ़ित़्र वाजिब है, अगर सुब्ह़े सादिक़ के बाद साह़िबे निसाब हुवा, तो अब वाजिब नहीं । (आ़लमगीरी, जि. 1, स. 192)

10.   सदक़ए फ़ित़्र अदा करने का अफ़्ज़ल वक़्त तो येही है कि ई़द को सुब्ह़े सादिक़ के बाद ई़द की नमाज़ अदा करने से पेहले पेहले अदा कर दिया जाए, अगर चांदरात या रमज़ानुल मुबारक के किसी भी दिन बल्कि रमज़ान शरीफ़ से पेहले भी अगर किसी ने अदा कर दिया, तब भी फ़ित़्रा अदा हो गया और ऐसा करना बिल्कुल जाइज़ है । (आ़लमगीरी, जि. 1, स. 192)

11.   सादाते किराम को सदक़ए फ़ित़्र नहीं दे सकते ।

          ऐ सदक़ए फ़ित़्र और ज़कात वग़ैरा अदा करने वाले ख़ुश नसीब इस्लामी भाइयो और बहनो ! आप की ख़िदमत में मुअद्दबाना गुज़ारिश है कि अपने सदक़ात व ज़कात क़रीबी रिश्तेदारों को दें जो ज़कात के मुस्तह़िक़ भी हों या फिर ऐसे मक़ाम पर देने की कोशिश फ़रमाएं जहां न सिर्फ़ इस का देना जाइज़ हो बल्कि येह सदक़ा आप के लिए अ़ज़ीमुश्शान सवाबे जारिया बन सके । इस को यूं समझिए कि अगर आप कोई कारोबार करना चाहें और दो क़िस्म के कारोबार आप के पेशे नज़र हों : (1) जिस में एक मरतबा नफ़्अ़ ह़ासिल होगा फिर मुन्क़त़ेअ़ हो जाएगा । (2) जिस में नफ़्अ़ का सिलसिला ता क़ियामत हो । तो यक़ीनन आप का दिलो दिमाग़ दूसरी क़िस्म के कारोबार के ह़क़ में फै़सला देगा ।