Book Name:Faizan e Shabaan
करीम की ता'लीम फ़ी सबीलिल्लाह दी जाती है । अल्लाह करीम मजलिसे जजिज़ ऐन्ड वुकला को मज़ीद तरक़्क़ियां नसीब फ़रमाए ।
اٰمِیْن بِجَاہِ النَّبِیِ الْاَمِیْن صَلَّی اللّٰہُ تَعَالٰی عَلَیْہِ واٰلِہٖ وَسَلَّمَ
صَلُّوْا عَلَی الْحَبِیْب! صَلَّی اللّٰہُ تَعَالٰی عَلٰی مُحَمَّد
मीठे मीठे इस्लामी भाइयो ! शबे बराअत में इस्लामी भाइयों का क़ब्रिस्तान जाना सुन्नत है (मगर इस्लामी बहनों को शरअ़न इस की इजाज़त नहीं, वोह घर में रह कर ही इ़बादत और ईसाले सवाब करें) । इस्लामी भाई क़ब्रिस्तान जा कर अपने मर्ह़ूमीन के लिये ईसाले सवाब और दुआए मग़फ़िरत करें कि इस से मुर्दों को उन्सिय्यत (या'नी सुकून व राह़त) ह़ासिल होती है और अगर उन के लिये दुआए मग़फ़िरत न की जाए, तो मग़मूम (या'नी ग़मज़दा) हो जाते हैं । चुनान्चे,
क़ब्रिस्तान के मुर्दे ख़्वाब में आ पहुंचे !
एक साह़िब का मा'मूल था कि वोह क़ब्रिस्तान में आ कर बैठ जाते और जब भी कोई जनाज़ा आता, उस की नमाज़ पढ़ते और शाम के वक़्त क़ब्रिस्तान के दरवाज़े पर खड़े हो कर इस त़रह़ दुआएं देते : (ऐ क़ब्र वालो !) ख़ुदा तुम को उन्स अ़त़ा करे, तुम्हारी ग़ुर्बत पर रह़म करे, तुम्हारे गुनाह मुआफ़ फ़रमाए और नेकियां क़बूल करे । वोही साह़िब फ़रमाते हैं : एक शाम (ब वक़्ते रुख़्सत) मैं अपना क़ब्रिस्तान वाला मा'मूल पूरा न कर सका, या'नी उन्हें दआएं दिये बिग़ैर ही घर आ गया । मेरे ख़्वाब में एक कसीर मख़्लूक़ आ गई । मैं ने उन से पूछा कि आप लोग कौन हैं और क्यूं आए हैं ? बोले : हम क़ब्रिस्तान वाले हैं । आप ने आदत कर ली थी कि घर आते वक़्त हम को हदिय्या (या'नी तोह़फ़ा) देते थे और आज न दिया । मैं ने कहा : वोह हदिय्या क्या था ? तो उन्हों ने कहा : वोह हदिय्या दुआओं का था । मैं ने कहा : अच्छा ! अब येह हदिय्या मैं तुम को फिर से दूंगा । इस के बा'द मैं ने अपने इस मा'मूल को कभी तर्क न किया ।
(शर्ह़ुस्सुदूर, स. 226, क़ब्र वालों की 25 ह़िकायात, स. 9)