Hajj Kay Fazail or Is Kay Ahkamaat

Book Name:Hajj Kay Fazail or Is Kay Ahkamaat

ह़ज की फ़र्ज़िय्यत

प्यारे प्यारे इस्लामी भाइयो ! "ह़ज" अरकाने इस्लाम में से एक बुन्यादी रुक्न और अहम इ़बादत है, अल्लाह पाक ने साह़िबे इस्तित़ाअ़त लोगों पर इसे फ़र्ज़ फ़रमाया है, जो फ़र्ज़ होने के बा वुजूद इस की अदाएगी में कोताही (Negligence) करे, सख़्त गुनहगार और जहन्नम का ह़क़दार है । अल्लाह पाक पारह 4, सूरए आले इ़मरान, आयत नम्बर 97 में इरशाद फ़रमाता है :

وَ  لِلّٰهِ  عَلَى  النَّاسِ   حِجُّ  الْبَیْتِ  مَنِ  اسْتَطَاعَ  اِلَیْهِ  سَبِیْلًاؕ-وَ  مَنْ  كَفَرَ  فَاِنَّ  اللّٰهَ  غَنِیٌّ  عَنِ  الْعٰلَمِیْنَ(۹۷)

۴،اٰلِ عمران:۹۷)

तर्जमए कन्ज़ुल इ़रफ़ान : और अल्लाह के लिए लोगों पर इस घर का ह़ज करना फ़र्ज़ है जो इस तक पहुंचने की त़ाक़त रखता है और जो इन्कार करे, तो अल्लाह सारे जहान से बे परवाह है ।

        आयत की तफ़्सीर में "ख़ज़ाइनुल इ़रफ़ान" में है : इस आयत में ह़ज की फ़र्ज़िय्यत का बयान है और इस का कि इस्तित़ाअ़त शर्त़ है । ह़दीस शरीफ़ में सय्यिदे आ़लम صَلَّی اللّٰہُ عَلَیْہِ وَاٰلِہٖ وَسَلَّم ने इस की तफ़्सीर ज़ाद व राह़िला से फ़रमाई । ज़ाद यानी तोशा, खाने, पीने का इन्तिज़ाम इस क़दर होना चाहिए कि जा कर वापस आने तक के लिए काफ़ी हो और येह वापसी के वक़्त तक अहलो इ़याल के नफ़्क़े के इ़लावा होना चाहिए । राह का अम्न भी ज़रूरी है क्यूंकि बिग़ैर इस के इस्तित़ाअ़त साबित नहीं होती । इस से अल्लाह पाक की नाराज़ी ज़ाहिर होती है और येह मस्अला भी साबित होता है कि फ़र्जे़ क़त़ई़ का मुन्किर काफ़िर है ।

ह़ज की तारीफ़ और ह़ज व उ़मरह के चन्द अह़काम

          तफ़्सीरे सिरात़ुल जिनान में है : ह़ज नाम है एह़राम बांध कर नवीं ज़िल ह़िज्जा को अ़रफ़ात में ठेहरने और काबए मुअ़ज़्ज़मा के त़वाफ़ का, इस के लिए ख़ास वक़्त मुक़र्रर है जिस में येह अफ़्आ़ल किए जाएं, तो "ह़ज" है । ह़ज 9 हिजरी में फ़र्ज़ हुवा, इस की फ़र्ज़िय्यत क़त़ई़ है, इस की फ़र्ज़िय्यत का इन्कार करने वाला काफ़िर है । (बहारे शरीअ़त, ह़िस्सा : शशुम, 1 / 1035-1036)

ह़ज के फ़राइज़ येह हैं : (1) एह़राम (2) वुक़ूफे़ अ़रफ़ा (3) त़वाफ़ुज़्ज़ियारत ।

ह़ज की तीन क़िस्में हैं : (1) इफ़राद यानी सिर्फ़ ह़ज का एह़राम बांधा जाए । (2) तमत्तोअ़ यानी पेहले उ़मरे का एह़राम बांधा जाए फिर उ़मरे के एह़राम से फ़ारिग़ होने के बाद उसी सफ़र में ह़ज का एह़राम बांधा जाए । (3) क़िरान यानी उ़मरह और ह़ज दोनों का इकठ्ठा एह़राम बांधा जाए, इस में उ़मरह    करने के बाद एह़राम की पाबन्दियां ख़त्म नहीं होतीं बल्कि बर क़रार रेहती हैं । उ़मरह की तफ़्सील कुछ यूं है कि उ़मरह में सिर्फ़ एह़राम बांध कर ख़ानए काबा का त़वाफ़ और सफ़ा, मरवह की सई़ कर के ह़ल्क़ करवाना होता है । ह़ज व उ़मरह दोनों के हर हर मस्अले में बहुत तफ़्सील है, इस के लिए "बहारे शरीअ़त" के ह़िस्सा 6 का मुत़ालआ़ करें ।

(فَاِنْ اُحْصِرْتُمْ : तो अगर तुम्हें रोक दिया जाए) यहां से ह़ज के एक अहम मस्अले का बयान है जिसे "इह़सार" केहते हैं । आयत का ख़ुलासए कलाम येह है कि अगर ह़ज या उ़मरह का एह़राम बांध लेने