Hajj Kay Fazail or Is Kay Ahkamaat

Book Name:Hajj Kay Fazail or Is Kay Ahkamaat

के बाद ह़ज या उ़मरह की अदाएगी में तुम्हें कोई रुकावट पेश आ जाए जैसे दुश्मन का ख़ौफ़ हो या मरज़ वग़ैरा, तो ऐसी ह़ालत में तुम एह़राम से बाहर आ जाओ और इस सूरत में ह़ुदूदे ह़रम में क़ुरबानी का जानवर, ऊंट या गाय या बकरी का ज़ब्ह़ करवाना तुम पर वाजिब है और जब तक क़ुरबानी का जानवर ज़ब्ह़ न हो जाए, तब तक तुम सर न मुन्डवाओ ।

(فَمَنْ كَانَ مِنْكُمْ مَّرِیْضًا : फिर जो तुम में बीमार हो) इह़सार के बाद एक और मस्अले का बयान है, वोह येह है कि ह़ालते एह़राम में बाल मुन्डवाने की इजाज़त नहीं होती, यूंही लिबास, ख़ुश्बू वग़ैरा के एतिबार से काफ़ी पाबन्दियां होती हैं, अगर इन का ख़िलाफ़ करें, तो दम या सदक़ा लाज़िम आता है लेकिन बाज़ सूरतें ऐसी हैं कि मजबूरी की वज्ह से एह़राम की पाबन्दियों की मुख़ालफ़त करनी पड़ती है । बिग़ैर उ़ज़्र के और उ़ज़्र की वज्ह से किए गए अफ़्आ़ल में शरीअ़त ने कुछ फ़र्क़ किया है । आयत में इस की कुछ सूरतों का बयान है । जानबूझ कर एह़राम की पाबन्दियों की मुख़ालफ़त करेगा, तो गुनाहगार भी होगा और फ़िद्या देना भी लाज़िम आएगा और मजबूरी की वज्ह से मुख़ालफ़त करे, तो गुनाहगार न होगा लेकिन फ़िद्या देना पड़ेगा, अलबत्ता मजबूरी वाले को फ़िद्ये में कुछ रुख़्सतें भी दी गई हैं । चुनान्चे,

          सदरुश्शरीआ़, मौलाना अमजद अ़ली आज़मी رَحْمَۃُ اللّٰہ ِ عَلَیْہ फ़रमाते हैं : जहां दम का ह़ुक्म है, वोह जुर्म अगर बीमारी या सख़्त गर्मी या शदीद सर्दी या ज़ख़्म या फोड़े या जूओं की सख़्त ईज़ा के बाइ़स होगा, तो उसे जुर्मे ग़ैर इख़्तियारी केहते हैं, इस में इख़्तियार होगा कि दम (क़ुरबानी) के बदले 6 मिस्कीनों को एक एक सदक़ा दे दे या दोनों वक़्त पेट भर खिलाए या तीन

रोज़े रख ले और अगर इस (जुर्म) में सदक़े का ह़ुक्म है और ब मजबूरी किया, तो इख़्तियार होगा कि सदक़े के बदले एक रोज़ा रख ले । (बहारे शरीअ़त, ह़िस्सा : शशुम, जुर्म और उन के कफ़्फ़ारे का बयान, 1 / 1162)

(فَمَنْ تَمَتَّعَ بِالْعُمْرَةِ اِلَى الْحَجِّ : तो जो ह़ज से उ़मरह मिलाने का फ़ाएदा उठाए) जो शख़्स एक ही सफ़र में शराइत़ का लिह़ाज़ करते हुवे ह़ज व उ़मरह की सआ़दत ह़ासिल करे, उस पर शुक्राने के त़ौर पर क़ुरबानी लाज़िम है और येह क़ुरबानी ई़द के दिन वाली क़ुरबानी नहीं होती बल्कि जुदागाना होती है और अगर क़ुरबानी की क़ुदरत न हो, तो उसे ह़ुक्म है कि दस रोज़े रखे, इन में से तीन रोज़े ह़ज के दिनों में यानी यकुम शव्वाल से नवीं ज़िल ह़ज्जा तक एह़राम बांधने के बाद किसी भी तीन दिन में रख ले, इकठ्ठे रखे या जुदा जुदा, दोनों का इख़्तियार है और सात रोज़े 13 ज़िल ह़िज्जा के बाद रखे । मक्कए मुकर्रमा में भी रख सकते हैं लेकिन अफ़्ज़ल येह है कि घर वापस लौट कर रखे । (बहारे शरीअ़त, ह़िस्सा : शशुम, 1 / 1140-1141, मुलख़्ख़सन)

(حَاضِرِی الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ : मक्का के रेहने वाले) ह़ज्जे तमत्तोअ़ या ह़ज्जे क़िरान का जाइज़ होना सिर्फ़ आफ़ाक़ी यानी मीक़ात से बाहर वालों के लिए है, ह़ुदूदे मीक़ात में और इस से अन्दर रेहने वालों के लिए न तमत्तोअ़ की इजाज़त है और न क़िरान की, वोह सिर्फ़ ह़ज्जे इफ़राद कर सकते हैं । (तफ़्सीरे सिरात़ुल जिनान, पा. 2, अल बक़रह : 196, 1 / 311)