Book Name:Jawani Me Ibadat kay Fazail
मौक़अ़ की मुनासबत और नौइ़य्यत के ए'तिबार से निय्यतों में कमी बेशी व तब्दीली की जा सकती है । ٭ निगाहें नीची किये ख़ूब कान लगा कर बयान सुनूंगी । ٭ टेक लगा कर बैठने के बजाए इ़ल्मे दीन की ता'ज़ीम की ख़ात़िर जहां तक हो सका दो ज़ानू बैठूंगी । ٭ ज़रूरतन सिमट सरक कर दूसरी इस्लामी बहनों के लिये जगह कुशादा करूंगी । ٭ धक्का वग़ैरा लगा, तो सब्र करूंगी, घूरने, झिड़कने और उलझने से बचूंगी । ٭ اُذْکُرُوااللّٰـہَ، تُوبُوْا اِلَی اللّٰـہِ صَلُّوْا عَلَی الْحَبِیْبِ، वग़ैरा सुन कर सवाब कमाने और सदा लगाने वाली की दिलजूई के लिये पस्त आवाज़ से जवाब दूंगी । ٭ इजतिमाअ़ के बा'द ख़ुद आगे बढ़ कर सलाम व मुसाफ़ह़ा और इनफ़िरादी कोशिश करूंगी । ٭ दौराने बयान मोबाइल के ग़ैर ज़रूरी इस्ति'माल से बचूंगी, न बयान रीकॉर्ड करूंगी, न ही और किसी क़िस्म की आवाज़ (कि इस की इजाज़त नहीं) । जो कुछ सुनूंगी, उसे सुन और समझ कर, उस पे अ़मल करने और उसे बा'द में दूसरों तक पहुंचा कर नेकी की दा'वत आम करने की सआदत ह़ासिल करूंगी ।
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मीठी मीठी इस्लामी बहनो ! आज के बयान का मौज़ूअ़ "जवानी में इ़बादत के फ़ज़ाइल" है । उ़मूमन अय्यामे जवानी में बे फ़िक्री व बे परवाई और इन ह़सीन लम्ह़ात की बे क़द्री बुढ़ापे में पछतावे का सबब बनती है । लिहाज़ा जब तक जवानी बाक़ी और सिह़ह़त सलामत है, तो इस को ज़ियादा से ज़ियादा इ़बादत में गुज़ारना बहुत ज़रूरी है ।
दा'वते इस्लामी के इशाअ़ती इदारे मक्तबतुल मदीना की किताब "ह़िकायतें और नसीह़तें" के सफ़ह़ा नम्बर 320 पर है : एक बुज़ुर्ग رَحْمَۃُ اللّٰہ ِتَعَالٰی عَلَیْہ फ़रमाते हैं : मैं ने एक नौजवान को आबादी और लोगों से अलग थलग अकेला