Book Name:Aala Hazrat Ki Ibadat o Riazat
"बीरे शैख़" पहुंचे, तो मन्जि़ल क़रीब थी लेकिन फ़ज्र का वक़्त थोड़ा रह गया था । ऊंट वालों ने मन्जि़ल ही पर ऊंट रोकने की ठानी लेकिन तब तक नमाज़े फ़ज्र का वक़्त न रहता, सय्यिदी आ'ला ह़ज़रत رَحْمَۃُ اللّٰہ ِتَعَالٰی عَلَیْہ फ़रमाते हैं : (येह सूरते ह़ाल देख कर) मैं और मेरे रुफ़क़ा (या'नी साथी) उतर पड़े, क़ाफ़िला चला गया । किरमिच का (या'नी मख़्सूस टाट का बना हुवा) डोल पास था । रस्सी नहीं और कुंवां गहरा, इ़मामे बांध कर पानी भरा (और) वुज़ू किया, بِحَمْدِاللہ تَعَالٰی नमाज़ हो गई । अब येह फ़िक्र लाह़िक़ हुई कि त़ूले मरज़ (त़वील अ़र्सा बीमार रहने की वज्ह) से ज़ो'फे़ शदीद (कमज़ोरी बहुत) है, इतने मील पियादा (पैदल) क्यूंकर चलना होगा ? मुंह फेर कर देखा, तो एक जम्माल (ऊंट वाला) मह़ज़ अजनबी अपना ऊंट लिये मेरे इन्तिज़ार में खड़ा है, ह़म्दे इलाही बजा लाया और उस पर सुवार हुवा । उस से लोगों ने पूछा कि तुम येह ऊंट कैसे लाए ? कहा : हमें शैख़ ह़ुसैन ने ताकीद कर दी थी कि शैख़ (आ'ला ह़ज़रत) की ख़िदमत में कमी न करना, कुछ दूर आगे चले थे कि मेरा अपना जम्माल (ऊंट वाला) ऊंट लिये खड़ा है । उस से पूछा, कहा : जब क़ाफ़िले के जम्माल न ठहरे, मैं ने कहा शैख़ को तक्लीफ़ होगी, क़ाफ़िले में से ऊंट खोल कर वापस लाया । येह सब मेरी सरकारे करम की वसिय्यतें थीं صَلَّی اللہُ تَعَالٰی وَبَارَکَ وَسَلَّم عَلَیْہِ وَعَلٰی عِتْرَتِہٖ قَدْرَ رَاْفَتِہٖ وَرَحْمَتِہٖ वरना कहां येह फ़क़ीर और कहां सरदारे राबिग़, शैख़ ह़ुसैन, जिन से जान न पहचान और कहां वह़शी मिज़ाज जम्माल (ऊंटों वाले) और उन की येह ख़ारिक़ुल आदात रविशें (या'नी ख़िलाफे़ मा'मूल त़र्जे़ अ़मल) (मल्फ़ूज़ाते आ'ला ह़ज़रत, स. 217, मुलख़्ख़सन)
मीठी मीठी इस्लामी बहनो ! سُبْحَان اَللّٰہ عَزَّ وَجَلَّ आप ने आ'ला ह़ज़रत I का शौके़ इ़बादत देखा कि महीनों की त़वील अ़लालत, शदीद कमज़ोरी व नक़ाहत के बा वुजूद हर त़रह़ की तकालीफ़ से बे परवा हो कर क़ाफ़िले का साथ तो छोड़ दिया, मगर "अफ़्ज़लुल इ़बादात" (या'नी सब से अफ़्ज़ल इ़बादत) नमाज़ को छोड़ना गवारा न किया । इस के साथ साथ जब भी क़ियाम पर क़ुदरत होती तो खड़े खड़े नमाज़ अदा फ़रमाते, बदन में त़ाक़त न