Book Name:Moasharay Ki Islah
अल ग़रज़ ! ٭ वोह जो कल तक एक दूसरे के मुह़ाफ़िज़ थे । ٭ एक दूसरे पर जान निछावर करने के दावे किया करते थे । ٭ जिन की दोस्ती की मिसालें दी जाती थीं । ٭ जिन के इत्तिफ़ाक़ व इत्तिह़ाद का चर्चा था । ٭ एक दूसरे के ख़िलाफ़ एक लफ़्ज़ तक सुनना भी गवारा न करते थे । ٭ एक दूसरे के बिग़ैर खाना तक नहीं खाते थे । ٭ बुरे वक़्त में एक दूसरे के मददगार थे । ٭ और तो और वोह जो कल तक एक दूसरे को नेकी के कामों की तरग़ीबें दिलाया करते थे । ٭ सुन्नतों भरे इजतिमाआ़त में इकठ्ठे आया और जाया करते थे । ٭ दावते इस्लामी के मदनी कामों में एक दूसरे की ह़ौसला अफ़्ज़ाई करते थे, लड़ाई, झगड़े जैसे मन्ह़ूस, शैत़ानी काम की नुह़ूसत के सबब उन के दरमियान नफ़रतों की ऐसी मज़बूत़ दीवारें क़ाइम हो जाती हैं कि फिर वोह एक दूसरे को देखना भी गवारा नहीं करते । यूं समझिए कि जिस त़रह़ आग (Fire) घरों, फे़क्ट्रियों, कम्पनियों, गोदामों, जंगलात, गांव, देहात और मुख़्तलिफ़ चीज़ों को घन्टों बल्कि मिनटों में जला कर तबाहो बरबाद कर डालती है, इसी त़रह़ हंसते बस्ते मुल्कों, शहरों, नस्लों, क़ौमों, घरों, ख़ानदानों, इदारों और तन्ज़ीमों का अमन तहस नहस करने और दिलों में नफ़रतों का बीज बोने में अक्सर लड़ाई, झगड़ों की तबाहकारियां ही कारफ़रमा होती हैं । यक़ीनन अगर हम ने क़ुरआनी अह़काम को भुलाया न होता, अगर हम रसूले अकरम صَلَّی اللّٰہُ عَلَیْہِ واٰلِہٖ وَسَلَّمَ के फ़रामीन पर अ़मल करते, अगर हम ने अपने बुज़ुर्गाने दीन رَحْمَۃُ اللّٰہ ِ عَلَیْہِمْ اَجْمَعِیْن के इरशादात से नसीह़त ह़ासिल की होती, अगर हम उ़लमाए ह़क़ के दामने करम से वाबस्ता रेहते, अगर हम ने लड़ाई, झगड़ों की तबाहकारियों को पेशे नज़र रखा होता, तो आज हमारा मुआ़शरा भी "अमनो सुकून का गेहवारा" बना होता । आइए ! लड़ाई, झगड़ों की तबाहकारियों पर मुश्तमिल दो फ़रामीने मुस्त़फ़ा صَلَّی اللّٰہُ عَلَیْہِ واٰلِہٖ وَسَلَّمَ सुनिए । चुनान्चे,
लड़ाई, झगड़ों की मज़म्मत पर 2 फ़रामीने मुस्त़फ़ा صَلَّی اللّٰہُ عَلَیْہِ واٰلِہٖ وَسَلَّمَ
1. इरशाद फ़रमाया : अल्लाह पाक के हां सब से ना पसन्दीदा शख़्स वोह है जो बहुत ज़ियादा झगड़ालू हो । (بخاری، کتاب المظالم،باب قول ﷲ تعالی:وہو الد الخصامِ،۲/ ۱۳۰،حدیث:۲۴۵۷)
2. इरशाद फ़रमाया : जो शख़्स नाह़क़ त़ौर पर झगड़ता है, वोह हमेशा अल्लाह पाक की नाराज़ी में होता है, यहां तक कि उसे छोड़ दे । (موسوعۃ لابن ابی الدنیا، کتاب الصَّمْت وآداب اللِّسان، باب ذم الخصومات،۷/۱۱۱، حدیث: ۱۵۳)
صَلُّوْا عَلَی الْحَبِیْب! صَلَّی اللّٰہُ عَلٰی مُحَمَّد