Book Name:Faizan-e-Ashabe Suffah
القاری،۱/۱۹۴، تحت الحدیث:۹ ، ملخصاً) आप رَضِیَ اللّٰہُ عَنْہ का इ़ल्मे दीन से शौक़ का आ़लम येह था कि जो बात मालूम न होती, ह़ज़ूरे अकरम صَلَّی اللّٰہُ عَلَیْہِ واٰلِہٖ وَسَلَّمَ से बिला झिजक पूछ लिया करते । (الاصابہ، ۷/۳۵۴) अपना ज़ियादा से ज़ियादा वक़्त नबिय्ये करीम صَلَّی اللّٰہُ عَلَیْہِ واٰلِہٖ وَسَلَّمَ की सोह़बते बा बरकत में गुज़ारते । (اسد الغابۃ، ۶/۳۳۸)
बुख़ारी शरीफ़ में है, ह़ज़रते अबू हुरैरा رَضِیَ اللّٰہُ عَنْہ फ़रमाते है : एक मरतबा मैं ने बारगाहे रिसालत में अ़र्ज़ की : या रसूलल्लाह صَلَّی اللّٰہُ عَلَیْہِ واٰلِہٖ وَسَلَّمَ ! मैं आप से फ़रामीन सुनता हूं मगर भूल जाता हूं । इरशाद फ़रमाया : अबू हुरैरा ! अपनी चादर फैलाओ । मैं ने फैला दी, तो मालिके जन्नत, क़ासिमे नेमत صَلَّی اللّٰہُ عَلَیْہِ واٰلِہٖ وَسَلَّمَ ने अपने हाथ मुबारक से चादर में कुछ डाल दिया और फ़रमाया : इसे उठा लो और सीने से लगा लो । मैं ने ह़ुक्म पर अ़मल किया, इस के बाद मैं कोई भी चीज़ नहीं भूला । (بخاری،کتاب العلم باب حفظ العلم ۱/۶۲، حدیث: ۱۱۹ملخصاً) ह़ज़रते अबू हुरैरा رَضِیَ اللّٰہُ عَنْہ ने एक मरतबा दुआ़ मांगी : اَللّٰهُم اِنِّي اَسْأَلُكَ عِلْماً لَا یُنسَى ऐ अल्लाह पाक ! मैं तुझ से ऐसा इ़ल्म मांगता हूं जो कभी न भूलूं । रसूले ख़ुदा صَلَّی اللّٰہُ عَلَیْہِ واٰلِہٖ وَسَلَّمَ ने आप رَضِیَ اللّٰہُ عَنْہ की दुआ़ पर "आमीन" फ़रमाया । (مستدرک،۴/۶۴۹،حدیث:۶۲۱۴) आप رَضِیَ اللّٰہُ عَنْہ के पास हज़ार गिरहें लगा हुवा एक धागा था जिस पर तस्बीह़ पढ़े बिग़ैर नहीं सोते थे । (صفۃ الصفوۃ ، ۱/۳۵۱) आप رَضِیَ اللّٰہُ عَنْہ हर महीने के आग़ाज़ में तीन रोज़े रखते और अगर किसी वज्ह से न रख पाते, तो महीने के आख़िर में तीन रोज़े रख लेते । (مسند احمد،۳/۲۶۸،حدیث:۸۶۴۱ماخوذاً) आप رَضِیَ اللّٰہُ عَنْہ मदीनए पाक के क़ब्रिस्तान "जन्नतुल बक़ीअ़" में आराम फ़रमा रहे हैं ।
अस्ह़ाबे सुफ़्फ़ा कौन थे ?
मस्जिदे नबवी शरीफ़ में एक चबूतरा था जहां (मुख़्तलिफ़ अवक़ात में) तक़रीबन 400 या 500 फ़ुक़रा मुहाजिरीन बैठा करते थे, इन्हें "अस्ह़ाबे सुफ़्फ़ा" केहते हैं । इन के पास घर था, न दुन्यवी साज़ो सामान और न ही कोई कारोबार, ग़ुर्बत का आ़लम येह था कि इन में से 70 के पास बदन छुपाने के लिए पूरा कपड़ा भी न था, इन की तादाद में कमी ज़ियादती होती रेहती थी । मदीनए मुनव्वरा में आने वाले का शहर में कोई जान पेहचान वाला न होता, तो वोह भी अहले सुफ़्फ़ा (सुफ़्फ़ा वाले सह़ाबए किराम عَلَیْہِمُ الرِّضْوَان) में शामिल हो जाया करता । (तफ़्सीरे नई़मी, 3 / 137)
प्यारी प्यारी इस्लामी बहनो ! ब ज़ाहिर तो येह ह़ज़रात जिस्मानी त़ौर पर बड़े कमज़ोर (Weak) थे, ब ज़ाहिर बड़े ग़रीब थे, इन के पास पेहनने को अच्छे कपड़े न थे, खाने को ग़िज़ा न थी, लेटने को नर्म व गर्म बिस्तर न थे, रेहने को घर न थे, अपनी ख़िदमत के लिए ख़ादिम व ग़ुलाम न थे लेकिन येह ह़ज़रात अल्लाह पाक की बारगाह में मक़्बूल थे, रसूले करीम, रऊफ़ुर्रह़ीम صَلَّی اللّٰہُ عَلَیْہِ واٰلِہٖ وَسَلَّمَ के मह़बूब थे । क़ुरआने पाक में ख़ुद रब्बे करीम ने इन की तारीफ़ो