Book Name:Namaz Ki Ahmiyat
शैख़े त़रीक़त, अमीरे अहले सुन्नत, बानिये दा'वते इस्लामी, ह़ज़रते अ़ल्लामा मौलाना अबू बिलाल मुह़म्मद इल्यास अ़त़्त़ार क़ादिरी रज़वी ज़ियाई دَامَتْ بَرْکَاتُھُمُ الْعَالِیَہ अपने रिसाले "कफ़न चोरों के इन्किशाफ़ात" के सफ़ह़ा नम्बर 20 पर एक इ़ब्रतनाक वाक़िआ़ नक़्ल फ़रमाते हैं : एक शख़्स की बहन फ़ौत हो गई, जब वोह उसे दफ़्न कर के लौटा, तो याद आया कि रक़म की थैली क़ब्र में गिर गई है । चुनान्चे, वोह अपनी बहन की क़ब्र पर आया और क़ब्र को खोदा ताकि थैली निकाल ले । उस ने देखा कि बहन की क़ब्र में आग के शो'ले भड़क रहे हैं । चुनान्चे, उस ने जिस त़रह़ भी हो सका क़ब्र पर मिट्टी डाली और ग़म की ह़ालत में रोता हुवा मां के पास आया और पूछा : प्यारी अम्मीजान ! मेरी बहन के आ'माल कैसे थे ? वोह बोली : बेटा क्यूं पूछते हो ? अ़र्ज़ की : मैं ने अपनी बहन की क़ब्र में आग के शो'ले भड़क्ते देखे हैं । येह सुन कर मां रोने लगी और कहा : अफ़्सोस ! तेरी बहन नमाज़ में सुस्ती किया करती थी और नमाज़ के अवक़ात गुज़ार कर (या'नी नमाज़ क़ज़ा कर के) पढ़ा करती थी । (मुकाशफ़तुल क़ुलूब, स. 189)
ऐ आ़शिक़ाने रसूल इस्लामी बहनो ! बयान कर्दा इ़ब्रतनाक ह़िकायत से मा'लूम हुवा नमाज़ में सुस्ती करना बहुत बड़ा गुनाह है और अ़ज़ाबे क़ब्र का सबब है । हमें भी पांचों नमाज़ें ज़ौक़ो शौक़ के साथ अदा करनी चाहियें और नमाज़ में हरगिज़ हरगिज़ सुस्ती नहीं करनी चाहिये क्यूंकि नमाज़ में सुस्ती करना मुनाफ़िक़ों की अ़लामत (Sign) है कि जब मुनाफ़िक़ीन, मोमिनों के साथ नमाज़ के लिये खड़े होते, तो सुस्ती के साथ खड़े होते क्यूंकि उन के दिलों में ईमान तो था नहीं ! जिस से इ़बादत का ज़ौक़ और बन्दगी का मज़ा ह़ासिल होता, सिर्फ़ लोगों को दिखाने के लिये नमाज़ पढ़ते थे । अल्लाह पाक ने उन के बारे में पारह 5, सूरतुन्निसा की आयत नम्बर 142 में इरशाद फ़रमाया :
وَ اِذَا قَامُوْۤا اِلَى الصَّلٰوةِ قَامُوْا كُسَالٰىۙ (پ 5، النساء، 142)
तर्जमए कन्ज़ुल इ़रफ़ान : और जब नमाज़ के लिये खड़े होते हैं, तो बड़े सुस्त हो कर ।
तफ़्सीरे सिरात़ुल जिनान में इस आयते मुबारका के तह़्त लिखा है : नमाज़ न पढ़ना या सिर्फ़ लोगों के सामने पढ़ना जब कि तन्हाई (या'नी अकेले) में न पढ़ना या लोगों के सामने ख़ुशूअ़ व ख़ुज़ूअ़ से और तन्हाई (या'नी अकेले) में जल्दी जल्दी पढ़ना या नमाज़ में इधर उधर ख़याल ले जाना, दिलजमई़ (या'नी तसल्ली व इत़मीनान) के लिये कोशिश न करना वग़ैरा सब सुस्ती की अ़लामतें हैं । (सिरात़ुल जिनान, 2 / 335)
अफ़्सोस ! आज हमारे मुआ़शरे में सिर्फ़ सुस्ती की वज्ह से नमाज़ें क़ज़ा कर दी जाती हैं जब कि गुनाह करने के लिये सुस्ती फ़ौरन चुस्ती में बदल जाती है । बा'ज़ तो ऐसी भी हैं कि जब उन की एक या चन्द नमाज़ें रह जाएं, तो हफ़्तों बल्कि महीनों तक जान बुझ कर नमाज़ नहीं पढ़तीं । अगर कोई दर्दमन्द इस्लामी बहन उन पर इनफ़िरादी कोशिश करते हुवे उन्हें नमाज़ों की तरग़ीब दिलाए, तो जवाब आता है : "اِنْ شَآءَ اللہ अगले जुमुआ़ से दोबारा नमाज़ें पढ़ना शुरूअ़ करूंगी या आइन्दा रमज़ान से बा क़ाइ़दा नमाज़ों का एहतिमाम