Book Name:Halal Kay Fazail Aur Haram Ki Waedain
ह़ज़रते सय्यिदुना उ़ब्बाद ख़व्वास رَحْمَۃُ اللّٰہ عَلَیْہ से मन्क़ूल है : एक मरतबा ह़ज़रते सय्यिदुना मूसा عَلَیْہِ السَّلَام किसी मक़ाम से गुज़रे, तो देखा कि एक शख़्स हाथ उठाए रो रो कर बड़े रिक़्क़त वाले अन्दाज़ में दुआ़ मांग रहा था । ह़ज़रते सय्यिदुना मूसा عَلَیْہِ السَّلَام उसे देखते रहे फिर अल्लाह पाक की बारगाह में अ़र्ज़ गुज़ार हुवे : ऐ मेरे रह़ीमो करीम परवर दगार ! तू अपने इस बन्दे की दुआ़ क्यूं नहीं क़बूल कर रहा ? अल्लाह पाक ने आप عَلَیْہِ السَّلَام की त़रफ़ वह़्य नाज़िल फ़रमाई : ऐ मूसा ! अगर येह शख़्स इतना रोए, इतना रोए कि इस का दम निकल जाए और अपने हाथ इतने बुलन्द कर ले कि आसमान को छू लें, तब भी मैं इस की दुआ़ क़बूल न करूंगा । ह़ज़रते सय्यिदुना मूसा عَلَیْہِ السَّلَام ने अ़र्ज़ की : मेरे मौला ! इस की क्या वज्ह है ? इरशाद हुवा : येह ह़राम खाता और ह़राम पहनता और इस के घर में ह़राम माल है । (उ़यूनुल ह़िकायात, ह़िस्सा दुवुम, स. 196)
صَلُّوْا عَلَی الْحَبِیْب! صَلَّی اللّٰہُ عَلٰی مُحَمَّد
प्यारे प्यारे इस्लामी भाइयो ! आप ने सुना कि जो ह़राम खाता, ह़राम पहनता और अपने घर में ह़राम माल रखता है, तो वोह अपनी दुआ़ओं के फ़ाइदों से ख़ुद को मह़रूम करता और अ़ज़ाबे जहन्नम का ह़क़दार क़रार पाता है, लिहाज़ा अगर हम चाहते हैं कि हमारी दुआ़एं बारगाहे इलाही में मक़्बूल हों और अल्लाह पाक की नाराज़ी से अमन नसीब हो, तो हमें चाहिये कि सिर्फ़ ह़लाल खाना ही अपनी आ़दत बनाएं और ह़राम व नाजाइज़ चीज़ों से बचते रहें । बिलफ़र्ज़ अगर कम तनख़ाह में किसी का गुज़ारा न होता हो, तो वोह ग़ैर ज़रूरी अख़राजात से जान छुड़ाए, न कि माल की लालच में ह़राम ज़राएअ़ इख़्तियार करे । बसा अवक़ात घर, सुसराल या रिश्तेदारों में कम तनख़ाह की वज्ह से त़रह़ त़रह़ की बातें सुनने को मिलती हैं, ऐसे मौक़अ़ पर अ़क़्ल मन्दी का तक़ाज़ा येह है कि सब्रो शुक्र के साथ थोड़ी आमदनी में भी क़नाअ़त का ज़ेहन बनाए । बा'ज़ लोग इन ह़ालात से तंग आ कर हिम्मत हार बैठते हैं और जुवा, भत्ता, सूद व रिशवत वग़ैरा ह़राम कामों में पड़ जाते हैं, ख़ुद भी माले ह़राम खाते और अपने घर वालों को भी माले ह़राम खिलाते हैं, यूं अपने लिये और अपने घर वालों के लिये हलाकत व बरबादी को दा'वत देते हैं । लिहाज़ा हमें चाहिये कि हम रोज़ी कमाने और माल जम्अ़ करने में इतने मश्ग़ूल न हो जाएं कि घर वालों की इस्लामी तरबिय्यत से ही ग़ाफ़िल हो जाएं । लिहाज़ा जितनी ज़रूरत हो, उतनी ही ह़लाल रोज़ी कमाइये और ज़रूर कमाइये मगर साथ साथ येह बात भी ज़ेहन नशीन रखिये कि घर वालों की सुन्नतों के मुत़ाबिक़ मदनी तरबिय्यत करना भी घर के सरपरस्तों पर लाज़िम है मगर इस के लिये ज़रूरी है कि वोह ख़ुद भी किसी अच्छे माह़ोल से वाबस्ता हों और उन का अपना भी मदनी ज़ेहन बना हुवा हो, वरना काम्याबी की उम्मीद रखना बे फ़ाइदा है । उ़मूमन देखा जाता है कि वालिदैन अपनी औलाद के लिये बड़े दर्द मन्दाना अन्दाज़ में दुआ़ के लिये इल्तिजाएं कर रहे होते हैं कि ह़ज़रत दुआ़ करें मेरी औलाद नमाज़ी बन जाए, ख़ुद चाहे जुमुआ़ भी न पढ़ता हो । ह़ज़रत दुआ़ करें मेरी औलाद क़ुरआने करीम की तिलावत करे, ख़ुद चाहे माहे रमज़ान में ही क़ुरआने करीम खोल कर देखा हो । ह़ज़रत दुआ़ करें मेरी औलाद राहे रास्त पर आ जाए, फ़िल्में ड्रामे, बुरी दोस्तियां छोड़ दे,