Aala Hazrat Ki Ibadat o Riazat

Book Name:Aala Hazrat Ki Ibadat o Riazat

1339 हिजरी का माहे रमज़ान मई, जून 1921 में पड़ा और मुसलसल अ़लालत व ज़ो'फ़े फ़रावां (या'नी शदीद कमज़ोरी) के बाइ़स आ'ला ह़ज़रत (رَحْمَۃُ اللّٰہ ِتَعَالٰی عَلَیْہ) ने अपने अन्दर मौसिमे गर्मा में रोज़ा रखने की त़ाक़त न पाई, तो अपने ह़क़ में येह फ़तवा दिया कि "पहाड़ पर सर्दी होती है वहां रोज़ा रखना मुमकिन है लिहाज़ा रोज़ा रखने के लिये वहां जाना इस्तित़ाअ़त की वज्ह से फ़र्ज़ हो गया ।" फिर आप रोज़ा रखने के इरादे से कोहे भवाली ज़िल्अ़ नैनी ताल तशरीफ़ ले गए । (तजल्लियाते इमाम अह़मद रज़ा, स. 133)

        मीठी मीठी इस्लामी बहनो ! देखा आप ने कि आ'ला ह़ज़रत رَحْمَۃُ اللّٰہ ِتَعَالٰی عَلَیْہ कितनी कम ग़िज़ा इस्ति'माल फ़रमाते ! काश हमारी भी डट कर खाने की आदत निकल जाए और क़ुफ़्ले मदीना लगाने की आदत बन जाए । इस के इ़लावा सय्यिदी आ'ला ह़ज़रत رَحْمَۃُ اللّٰہ ِتَعَالٰی عَلَیْہ फ़र्ज़ इ़बादात को बजा लाने में इस क़दर मोह़तात़ थे कि 7 साल की उ़म्र मुबारक से ही रोज़ों का एहतिमाम शुरूअ़ फ़रमा दिया और अख़ीरे उ़म्र तक न तो कोई रोज़ा छोड़ा और न ही क़ज़ा करने की ह़ाजत पेश आई । मगर अफ़्सोस ! फ़ी ज़माना हमारे मुआशरे में लोग रमज़ान के रोज़े छोड़ने के लिये बे शुमार जतन करते हैं, बहाने बनाते और किसी उ़ज्रे़ मो'तबर के बिग़ैर रोज़े छोड़ देते हैं ।

याद रखिये ! सर दर्द, मतली, हल्क़ा बुख़ार, खांसी और दीगर छोटी छोटी बीमारियों की वज्ह से रोज़ा छोड़ने की इजाज़त नहीं है । अगर्चे बा'ज़ मजबूरियां ऐसी हैं जिन के सबब रमज़ानुल मुबारक में रोज़ा न रखने की इजाज़त है मगर येह याद रहे कि मजबूरी में रोज़ा मुआफ़ नहीं हो जाता बल्कि वोह मजबूरी ख़त्म हो जाने के बा'द उस की क़ज़ा रखना फ़र्ज़ है । अलबत्ता क़ज़ा का गुनाह नहीं होगा मगर आज कल देखा जाता है कि मा'मूली नज़ला, बुख़ार या दर्दे सर की वज्ह से लोग रोज़ा तर्क कर दिया करते हैं या مَعَاذَ اللّٰہ عَزَّ  وَجَلَّ रख कर तोड़ देते हैं, ऐसा हरगिज़ नहीं होना चाहिये, अगर किसी सह़ीह़ शरई़ मजबूरी के बिग़ैर कोई रोज़ा छोड़ दे अगर्चे बा'द में सारी उ़म्र भी रोज़े रखे, उस एक रोज़े की फ़ज़ीलत को नहीं पा सकता ।