Fikr-e-Akhirat

Book Name:Fikr-e-Akhirat

दूर कर देती है, ग़फ़्लत में गुज़ारी हुई ज़िन्दगी इन्सान को तबाह कर डालती है । हमारे बुज़ुर्गाने दीन رَحْمَۃُ اللّٰہ عَلَیْہِمْ اَجْمَعِیْن का येह ज़ेहन होता था कि इन का कोई भी लम्ह़ा ग़फ़्लत में न गुज़रे बल्कि हर हर पल नेकियों और अल्लाह पाक की रिज़ा वाले कामों में गुज़रे और येह ह़ज़रात अच्छी ज़िन्दगी गुज़ार कर और नेक आमाल कर के भी इस बात से ख़ौफ़ज़दा रहते थे कि कहीं इन का येह अ़मल ग़फ़्लत की नज़्र न हो गया हो । जैसा कि :

          ह़ज़रते इमाम मुह़म्मद ग़ज़ाली رَحْمَۃُ اللّٰہ عَلَیْہ फ़रमाते हैं, ह़ज़रते शैख़ अबू अ़ली दक़्क़ाक़ رَحْمَۃُ اللّٰہ عَلَیْہ फ़रमाते हैं : मैं एक बुज़ुर्ग की इ़यादत के लिये ह़ाज़िर हुवा, मैं ने उन के आस पास उन के शागिर्दों को बैठे हुवे देखा, वोह बुज़ुर्ग رَحْمَۃُ اللّٰہ عَلَیْہ रो रहे थे । मैं ने अ़र्ज़ की : या शैख़ ! क्या आप दुन्या (छूटने) पर रो रहे हैं ? फ़रमाया : नहीं ! बल्कि नमाज़ें क़ज़ा होने पर रो रहा हूं । मैं ने कहा : आप तो इ़बादत करने वाले शख़्स थे फिर नमाज़ें किस त़रह़ क़ज़ा हुईं ? उन्हों ने फ़रमाया : मैं ने हर सजदा ग़फ़्लत में किया और हर सजदे से ग़फ़्लत में सर उठाया और अब ग़फ़्लत की ह़ालत में मर रहा हूं । (मुकाशफ़तुल क़ुलूब, स. 22)

मह़ज़ दावा बेकार है !

          प्यारे प्यारे इस्लामी भाइयो ! आप ने सुना कि अल्लाह पाक के नेक बन्दे हर लम्ह़ा यादे इलाही में गुज़ारने और हर घड़ी फ़िक्रे आख़िरत में मश्ग़ूल रहने के बा वुजूद भी अपनी इ़बादत को किसी ख़ात़िर में न लाते बल्कि अल्लाह करीम की बे नियाज़ी से डरते हुवे गिर्या व ज़ारी करते हैं मगर आह ! ग़फ़्लत के मारों का ह़ाल येह है, अव्वल तो नेकियां करते नहीं और अगर कोई नेक काम कर लिया, तो जब तक चार आदमियों के सामने अपनी नेकियों का एलान न कर लें, उन्हें चैन नहीं आता । अल्लाह करीम के नेक बन्दे गुनाहों से मह़फ़ूज़ होने के बा वुजूद हर वक़्त उस के ख़ौफ़ से थरथराते और आंसू बहाते हैं मगर ग़फ़्लत के मारे लोग दिन, रात बे धड़क गुनाहों में मश्ग़ूल रहने के बा वुजूद भी ज़रा नहीं डरते और बातें ऐसी करते हैं कि जैसे उन से ज़ियादा नेक कोई है ही नहीं ।

          ऐसों को ग़फ़्लत से झंझोड़ने के लिये ह़ज़रते शक़ीक़ बलख़ी رَحْمَۃُ اللّٰہ عَلَیْہ फ़रमाते हैं : लोग तीन बातें सिर्फ़ ज़बानी करते हैं मगर अ़मल उस के ख़िलाफ़ करते हैं । (1) कहते हैं : हम अल्लाह पाक के बन्दे हैं लेकिन काम ग़ुलामों जैसे नहीं बल्कि आज़ादों की त़रह़ अपनी मर्ज़ी के करते हैं । (2) कहते हैं : अल्लाह पाक ही हमें रिज़्क़ देता है लेकिन उन के दिल दुन्या और सामाने दुन्या जम्अ़ किये बिग़ैर मुत़्मइन नहीं होते और येह उन के इक़रार के सरासर ख़िलाफ़ है । (3) कहते हैं : आख़िर हमें मरना है मगर काम ऐसे करते हैं जैसे उन्हें कभी मरना ही नहीं । (मुकाशफ़तुल क़ुलूब, स. 45, मुलख़्ख़सन)

          प्यारे प्यारे इस्लामी भाइयो ! आज वाके़ई़ हमारी ह़ालत येह होती जा रही है कि हम दुन्या कमाने के लिये तो बहुत कोशिशें करते हैं मगर फ़िक्रे आख़िरत से ग़ाफ़िल रहते हैं, दिन रात मालदार बनने के सुनेहरे ख़्वाब तो देखते हैं, उ़म्दा गाड़ियों में घूमने, नए नए फै़शन अपनाते हैं मगर हम येह भूल जाते हैं कि एक दिन हमें मरना भी पड़ेगा और इस हंसती बस्ती दुन्या को छोड़ कर ख़ाली हाथ यहां से जाना होगा । हम में से किस को मालूम