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Book Name:Maa Baap Ko Satana Haram Hai

"मदनी दर्स" भी है, जो इ़ल्मे दीन सीखने, सिखाने का मुअस्सिर तरीन ज़रीआ़ है । "मदनी दर्स" से मुराद येह है कि शैख़े त़रीक़त, अमीरे अहले सुन्नत, ह़ज़रते अ़ल्लामा मौलाना अबू बिलाल मुह़म्मद इल्यास अ़त़्त़ार क़ादिरी रज़वी ज़ियाई دَامَتْ بَرْکَاتُھُمُ الْعَالِیَہ की चन्द कुतुबो रसाइल के इ़लावा आप की बाक़ी तमाम कुतुबो रसाइल बिल ख़ुसूस "फै़ज़ाने सुन्नत" जिल्द अव्वल और "फै़ज़ाने सुन्नत" जिल्द दुवुम के इन अब्वाब : (1) "ग़ीबत की तबाहकारियां" और (2) "नेकी की दा'वत" से मस्जिद, चौक, बाज़ार, दुकान, दफ़्तर और घर वग़ैरा में दर्स देने को तन्ज़ीमी इस्ति़लाह़ में "मदनी दर्स" कहते हैं ।

          ٭ मदनी दर्स बहुत ही प्यारा मदनी काम है कि इस की बरकत से मस्जिद की ह़ाज़िरी की बार बार सआ़दत ह़ासिल होती है । ٭ मदनी दर्स की बरकत से मुसलमानों से मुलाक़ात व सलाम की सुन्नत आ़म होती है । ٭ मदनी दर्स की बरकत से अमीरे अहले सुन्नत के मुख़्तलिफ़ मौज़ूआ़त पर मुश्तमिल कुतुबो रसाइल से इ़ल्मे दीन से माला माल क़ीमती मदनी फूल उम्मते मुस्लिमा तक पहुंचाए जा सकते हैं । ٭ मदनी दर्स, बे नमाज़ियों को नमाज़ी बनाने में बहुत मुआ़विन व मददगार है । ٭ मस्जिद के इ़लावा चौक, बाज़ार, दुकान वग़ैरा में अगर "मदनी दर्स" होगा, तो इस की बरकत से दा'वते इस्लामी के मदनी माह़ोल की वहां भी तश्हीर व नेक नामी होगी । आइये ! बत़ौरे तरग़ीब मदनी दर्स की एक मदनी बहार सुनते हैं । चुनान्चे,

बुरी सोह़बतों से नजात मिल गई

          मर्कज़ुल औलिया के एक इस्लामी भाई के किरदार में बुरी सोह़बतों की वज्ह से इस क़दर बिगाड़ पैदा हो गया था कि उन्हें छोटों पर शफ़्क़त का कोई एह़सास था, न ही बड़ों के अदबो एह़तिराम का कोई ख़याल, बात बात पर लड़ाई, झगड़ा करना उन का मा'मूल बन चुका था, ह़त्ता कि उन की बुरी आ़दतों की वज्ह से घर वाले भी तंग आ चुके थे । एक दिन दर्से फै़ज़ाने सुन्नत में शिर्कत की सआ़दत नसीब हुई, इस के बा'द वोह दर्स में पाबन्दी से शिर्कत करने लगे, यूं "मदनी दर्स" की बरकत से उन्हों ने अपनी गुनाहों भरी ज़िन्दगी से तौबा की और बुरी सोह़बतों से पीछा छुड़ा कर आ़शिक़ाने रसूल की मदनी तह़रीक दा'वते इस्लामी के मदनी माह़ोल से वाबस्ता हो गए ।

صَلُّوْا عَلَی الْحَبِیْب!      صَلَّی اللّٰہُ تَعَالٰی عَلٰی مُحَمَّد

          मीठे मीठे इस्लामी भाइयो ! उ़मूमन हर बाप की येह दिली ख़्वाहिश होती है कि मेरी औलाद मेरी फ़रमां बरदार रहे, मेरे साथ अच्छा सुलूक करे, नेक, मुत्तक़ी व परहेज़गार बने, मुआ़शरे में इ़ज़्ज़त दार और पाकीज़ा किरदार वाली हो मगर अक्सर नतीजा इस के उलट ही आता है । क्यूं ? इस लिये कि जो बाप तरबिय्यते औलाद के बुन्यादी इस्लामी उसूलों से ही ना वाक़िफ़, बे अ़मल और अच्छे माह़ोल की बरकतों से मह़रूम होगा, तो भला वोह क्यूं कर अपनी औलाद की अच्छी तरबिय्यत कर पाएगा ? शायद इसी वज्ह से आज औलाद की तरबिय्यत का मे'यार येह बन चुका है कि बच्चा अगर काम काज न करे, स्कूल, कोचिंग सेन्टर, टियूशन या अकेडमी से छुट्टी कर ले या इस मुआ़मले में सुस्ती का शिकार



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