Ghos e Pak Ki Shan o Azmat 10th Rabi ul Akhir 1442

Book Name:Ghos e Pak Ki Shan o Azmat 10th Rabi ul Akhir 1442

। चुनान्चे, आप की निगाहे फै़ज़ से वोह क़ुत़्बिय्यत के दरजे पर फ़ाइज़ हो गया । (सीरते ग़ौसुस्सक़लैन, स. 130)

लाठी, चराग़ की त़रह़ रौशन हो गई

          ह़ज़रते अ़ब्दुल मलिक ज़य्याल رَحْمَۃُ اللّٰہ ِ عَلَیْہ बयान करते है : मैं एक रात ह़ुज़ूरे ग़ौसे पाक رَحْمَۃُ اللّٰہ ِ عَلَیْہ के मद्रसे में खड़ा था, आप अन्दर से एक लाठी दस्ते अक़्दस में लिए हुवे तशरीफ़ फ़रमा हुवे । मेरे दिल में ख़याल आया : काश ! ह़ुज़ूर अपनी इस लाठी से कोई करामत दिखलाएं । इधर मेरे दिल में येह ख़याल गुज़रा और उधर ह़ुज़ूरे ग़ौसे पाक رَحْمَۃُ اللّٰہ ِ عَلَیْہ ने लाठी को ज़मीन पर गाड़ दिया, तो वोह लाठी मिस्ले चराग़ के रौशन हो गई और बहुत देर तक रौशन रही फिर ह़ुज़ूरे ग़ौसे पाक رَحْمَۃُ اللّٰہ ِ عَلَیْہ ने उसे उखेड़ लिया, तो वोह लाठी जैसी थी, वैसी ही हो गई । इस के बाद आप رَحْمَۃُ اللّٰہ ِ عَلَیْہ ने फ़रमाया : बस ऐ ज़य्याल ! तुम येही चाहते थे ! (بہجة الاسرار ،ذکرفصول من کلامہ…الخ، ص۱۵۰ملتقطا)

उंगली मुबारक की करामत

          एक मरतबा रात में सरकारे बग़दाद, ह़ज़रते सय्यिदुना शैख़ अ़ब्दुल क़ादिर जीलानी رَحْمَۃُ اللّٰہ ِ عَلَیْہ के हमराह शैख़ अह़मद रफ़ाई़ और ह़ज़रते अ़दी बिन मुसाफ़िर رَحْمَۃُ اللّٰہِ عَلَیْہِمْ اَجْمَعِیْن, ह़ज़रते सय्यिदुना इमाम अह़मद बिन ह़म्बल رَحْمَۃُ اللّٰہ ِ عَلَیْہ के मज़ारे पुर अन्वार की ज़ियारत के लिए तशरीफ़ ले गए मगर उस वक़्त अन्धेरा बहुत ज़ियादा था । ह़ुज़ूरे ग़ौसे आज़म رَحْمَۃُ اللّٰہ ِ عَلَیْہ उन के आगे आगे थे, आप जब किसी पथ्थर, लक्ड़ी, दीवार या क़ब्र के पास से गुज़रते, तो अपने हाथ से इशारा फ़रमाते, उस वक़्त आप का हाथ मुबारक चांद की त़रह़ रौशन हो जाता था, यूं वोह सब ह़ज़रात आप के मुबारक हाथ की रौशनी के ज़रीए़ ह़ज़रते सय्यिदुना इमाम अह़मद बिन ह़म्बल رَحْمَۃُ اللّٰہ ِ عَلَیْہ के मुज़ारे मुबारक तक पहुंच गए । (قلائدالجواہر،ص۷۷ ملخصا)

अन्धों को बीना और मुर्दों को ज़िन्दा करना

          ह़ज़रते शैख़ अबुल ह़सन क़रशी رَحْمَۃُ اللّٰہ ِ عَلَیْہ फ़रमाते हैं : मैं और शैख़ अबुल ह़सन हैती, ह़ज़रते सय्यिदुना शैख़ मुह़्युद्दीन अ़ब्दुल क़ादिर जीलानी رَحْمَۃُ اللّٰہ ِ عَلَیْہ की ख़िदमत में उन के मद्रसे में मौजूद थे, उन के पास अबू ग़ालिब फ़ज़्लुल्लाह सौदागर ह़ाज़िर हुवा । वोह आप رَحْمَۃُ اللّٰہ ِ عَلَیْہ से अ़र्ज़ करने लगा : ऐ मेरे सरदार ! आप के जद्दे अमजद, ह़ुज़ूरे पुरनूर, जनाबे अह़मदे मुज्तबा صَلَّی اللّٰہُ عَلَیْہِ وَاٰلِہٖ وَسَلَّم का फ़रमाने ज़ीशान है : जो शख़्स दावत में बुलाया जाए, उस को दावत क़बूल करनी चाहिए । मैं आप के पास इस लिए ह़ाज़िर हुवा हूं कि आप मेरे घर दावत पर तशरीफ़ लाएं । आप رَحْمَۃُ اللّٰہ ِ عَلَیْہ ने फ़रमाया : अगर मुझे इजाज़त मिली, तो मैं आऊंगा । फिर कुछ देर बाद आप ने मुराक़बा कर के फ़रमाया : हां ! आऊंगा । फिर आप رَحْمَۃُ اللّٰہ ِ عَلَیْہ अपने ख़च्चर पर सुवार हुवे । शैख़ अ़ली ने आप के ख़च्चर की दाईं रिकाब पकड़ी और मैं ने बाईं रिकाब थामी और जब हम उस के घर आए, देखा तो बग़दाद के मशाइख़, उ़लमा और मुअ़ज़्ज़िज़ीन जम्अ़ हैं, ऐसा दस्तरख़ान बिछाया गया जिस में तमाम शीरीं और तुर्श चीज़ें खाने के लिए मौजूद थीं, एक बड़ा सन्दूक़ लाया गया जिस को दो