Ikhtiyarat-e-Mustafa (12Shab)

Book Name:Ikhtiyarat-e-Mustafa (12Shab)

आदमी को रसूले करीम صَلَّی اللّٰہُ تَعَالٰی عَلَیْہِ واٰلِہٖ وَسَلَّمَ की फ़रमां बरदारी हर मुआ़मले में वाजिब है और नबी عَلَیْہِ السَّلَام के मुक़ाबले में कोई अपनी ज़ात का भी ख़ुद मुख़्तार नहीं । (ख़ज़ाइनुल इ़रफ़ान, पा. 22, अल अह़ज़ाब, तह़्तुल आयत : 36, बित्तग़य्युर)

        سُبْحٰنَ اللّٰہ ! आप ने सुना कि ख़ालिके़ काइनात ने अपने मह़बूब صَلَّی اللّٰہُ تَعَالٰی عَلَیْہِ واٰلِہٖ وَسَلَّمَ को कैसे कैसे इख़्तियारात से नवाज़ा है कि मुसलमानों के आपस के मुआ़मलात में भी आप صَلَّی اللّٰہُ تَعَالٰی عَلَیْہِ واٰلِہٖ وَسَلَّمَ को ह़ाकिम व मुख़्तार बना कर मुसलमानों पर आप صَلَّی اللّٰہُ تَعَالٰی عَلَیْہِ واٰلِہٖ وَسَلَّمَ की इत़ाअ़त को लाज़िम क़रार दे दिया । यूंही आप صَلَّی اللّٰہُ تَعَالٰی عَلَیْہِ واٰلِہٖ وَسَلَّمَ को इस बात का भी इख़्तियार दे दिया कि जिसे चाहें, जो चाहें ह़ुक्म फ़रमा दें और जिस चीज़ से चाहें, जब चाहें, मन्अ़ फ़रमा दें । चुनान्चे,

          सदरुश्शरीआ़, बदरुत़्त़रीक़ा, ह़ज़रते अ़ल्लामा मौलाना मुफ़्ती मुह़म्मद अमजद अ़ली आ'ज़मी رَحْمَۃُ اللّٰہ ِتَعَالٰی عَلَیْہ फ़रमाते हैं : ह़ुज़ूरे अक़्दस صَلَّی اللّٰہُ تَعَالٰی عَلَیْہِ واٰلِہٖ وَسَلَّمَ, अल्लाह (पाक) के नाइबे मुत़्लक़ हैं, तमाम जहान, ह़ुज़ूर (صَلَّی اللّٰہُ تَعَالٰی عَلَیْہِ واٰلِہٖ وَسَلَّمَ) के तह़्ते तसर्रुफ़ (या'नी इख़्तियार में) कर दिया गया, जो चाहें करें, जिसे जो चाहें दें, जिस से जो चाहें वापस लें, तमाम जहान में उन के ह़ुक्म का फेरने वाला कोई नहीं, तमाम जहान उन का मह़्कूम (या'नी ह़ुक्म का पाबन्द) है और वोह अपने रब्बे (करीम) के सिवा किसी के मह़्कूम (या'नी ह़ुक्म का पाबन्द) नहीं, तमाम आदमियों के मालिक हैं, जो उन्हें अपना मालिक न जाने ह़लावते सुन्नत (या'नी सुन्नत की मिठास) से मह़रूम रहे, तमाम ज़मीन उन की मिल्क (या'नी मिल्किय्यत) है, तमाम जन्नत उन की जागीर है, مَلَکُوْتُ السَّمٰوَاتِ وَالْاَرْض (या'नी आसमान व ज़मीन की सल्त़नतें) ह़ुज़ूर (صَلَّی اللّٰہُ تَعَالٰی عَلَیْہِ واٰلِہٖ وَسَلَّمَ) के ज़ेरे फ़रमान, जन्नत व नार (दोज़ख़) की कुन्जियां (या'नी चाबियां) दस्ते अक़्दस (या'नी आप صَلَّی اللّٰہُ تَعَالٰی عَلَیْہِ واٰلِہٖ وَسَلَّمَ के मुबारक हाथों) में दे दी गईं, रिज़्क़ व ख़ैर